"डपोरशंख, जनता और जुमलों का जादू"



बहुत समय पहले की बात है…

(मतलब कोई ज़्यादा पुरानी बात नहीं, 5 साल पहले की भी कह सकते हैं…)

एक गांव में डपोरशंख नाम का आदमी रहता था। उसके पास ना खेत था, ना खलिहान…
ना पैसा, ना पहचान…
लेकिन मुँह में माइक और जुबान में जुमले थे!

वो रोज़ लोगों से कहता:

“बताओ भैया! क्या चाहिए? एक क्यों, दो लो! दो क्यों, चार लो!”

गांव वाले खुश —
"ई तो बड़ा दानी निकला भाई!"

रामू बोला:
“भइया, एक नारियल दे दो…”
डपोरशंख:
“एक क्यों बे! पूरा पेड़ ले जा!”

श्यामू बोला:
“एक धोती मिल जाती तो…”
डपोरशंख:
“धोती छोड़, बनियान, कुर्ता, जूता, सब फ्री में!”

अब ज़रा कैमरा मोड़िए — 2025 की राजनीति पर।

नेता जी मंच से गरजते हैं —

“हर हाथ को काम मिलेगा!”
“हर खेत को पानी मिलेगा!”
“हर खाते में 15 लाख!”
“हर घर में चाँद-तारे!”

जनता तालियाँ बजा-बजा के चप्पल ढीली कर देती है।
फिर जैसे ही चुनाव जीतते हैं, नेता जी ग़ायब —
"वो योजना अभी विचाराधीन है…"
"बजट पास होते ही मिलेगा…"
"आपकी भावनाएं हमारे साथ हैं…"

यानी डपोरशंख आधुनिक रूप में वापस आ चुका है,
बस अब उसके पास माइक है, हेलीकॉप्टर है, और जुमलों की एक पूरी फौज।


🎭 आज का नेता = डपोरशंख 2.0 (Now with WiFi and slogans!)

👉 पूछो – नौकरी कब दोगे?
कहेंगे – अगले बजट में ज़रूर!

👉 पूछो – महंगाई क्यों बढ़ रही है?
कहेंगे – विपक्ष के कारण!

👉 पूछो – जो वादा किया था वो मिला नहीं…
कहेंगे – मन से तो दे ही दिया था…


😄 सीख भी है, ठिठोली भी:

  1. डपोरशंख अगर कहानी में रहे तो मज़ा है, सत्ता में आए तो सज़ा है।

  2. वादे अगर फ्री में मिलते हैं, तो समझो कीमत सबसे ज़्यादा जनता ही चुकाती है।

  3. तालियाँ बजाते वक़्त सोचिए — अगली बार बजाने का मौका भी मिलेगा या सिर्फ बजते रहेंगे?


🔚 अंत में:

डपोरशंख चला गया, लेकिन उसके बच्चे अब भी चुनाव लड़ते हैं।
नाम बदलते रहते हैं — कोई विकास पुरुष, कोई गरीबों का मसीहा, कोई डिजिटल बाबा।

पर पहचान वही रहती है —
"एक क्यों, दो लो!
मांगो मत, बस भरोसा रखो… और भूल जाओ!"

Post a Comment

Previous Post Next Post